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श्री कृष्ण जन्माष्टमी

भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को रात के बारह बजे मथुरा नगरी के कारागार में वसुदेवजी की पत्नी देवकी के गर्भ से षोडश कलासम्पन्न भगवान् श्रीकृष्ण का अवतार हुआ था।
कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्’ – इस शास्त्रीय वचन के अनुसार सच्चिदानन्द परब्रह्म परमात्मा सर्वेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण समस्त अवतारों में परिपूर्णतम अवतार माने गये हैं।

अथ भाद्रासिताष्टम्यां प्रादुरासीत् स्वयं हरिः ।
ब्रह्मणा प्रार्थितः पूर्वं देवक्यां कृपया विभुः ॥
रोहिण्यक्षै शुभतिथौ दैत्यानां नाशहेतवे।
महोत्सवं प्रकुर्वीत यत्नतस्तद्दिने शुभे ॥
अर्थात् भाद्रपदमास के कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को पूर्वकाल में स्वयं श्रीहरि ब्रह्मादि देवों की प्रार्थना पर दैत्यों के विनाश हेतु रोहिणी नक्षत्रयुक्त शुभतिथि में माता देवकी के उदर से अनुग्रहपूर्वक प्रकट हुए।

श्रीमद्भागवतमें कहा गया है-
निशीथे तम उद्भूते जायमाने जनार्दने । देवक्यां देवरूपिण्यां विष्णुः सर्वगुहाशयः । आविरासीद् यथा प्राच्यां दिशीन्दुरिव पुष्कलः ॥

विनाश और ज्ञानरूपी चन्द्रमा का उदय हो रहा था, उस समय देवरूपिणी देवकी के गर्भ से सबके अन्तःकरण में विराजमान पूर्ण पुरुषोत्तम व्यापक परब्रह्म विश्वम्भर प्रभु भगवान् श्रीकृष्ण प्रकट हुए, जैसे कि पूर्व दिशा में पूर्ण चन्द्र प्रकट हुआ।

इस दिन भगवान्‌ का प्रादुर्भाव होने के कारण यह उत्सव मुख्यतया उपवास, जागरण एवं विशिष्टरूप से श्रीभगवान्‌की सेवा-शृङ्गारादिका है। दिन में उपवास और रात्रि में जागरण एवं यथोपलब्ध उपचारों से भगवान का पूजन, भगवत्-कीर्तन इस उत्सवके प्रधान अङ्ग हैं।

इस वर्ष रोहिणी नक्षत्र में मध्यरात्रि की अष्टमी प्राप्त होने से और यह योग सोमवार को होने से यह अत्यंत महत्वपूर्ण दिवस हो जाता है। श्रीकृष्णजन्माष्टमी रोहिणी नक्षत्रयोगरहित हो तो ‘केवला’ और रोहिणी नक्षत्रयुक्त हो तो ‘जयन्ती’ कहलाती है। जयन्ती में बुध-सोमका योग आ जाय तो वह अत्युत्कृष्ट फलदायक हो जाती है। ऐसा योग अनेक वर्षों के बाद सुलभ होता है। जन्माष्टमी केवला और जयन्ती इस शब्दभेद से इन दोनों में क्या अत्यन्त भेद है? या जन्माष्टमी ही गुणवैशिष्ट्यसे जयन्ती कही जाती है। इसका समाधान करते हुए शास्त्रकार कहते हैं- केवलाष्टमी और जयन्ती में अत्यन्त भिन्नता नहीं है; क्योंकि अष्टमी के बिना जयन्ती का स्वतन्त्र स्वरूप बन ही नहीं सकता। यह तो सिद्ध है कि रोहिणी के बिना भी केवल अष्टमी में व्रत-उपवास किया ही जाता है, किंतु तिथि-योग के बिना रोहिणी में किसी प्रकार का स्वतन्त्र व्रतविधान नहीं है। अतः श्रीकृष्णजन्माष्टमी ही रोहिणीके योगसे जयन्ती बनती है। एतदर्थ कहा गया है कि रोहिणी-गुणविशिष्टाजयन्ती। विशेष सामान्यसे पृथक् नहीं रहता। अष्टमी जयन्ती में पशुत्व गोत्वकी तरह सामान्य- विशेषकृत मात्र भेद है। विष्णुरहस्य में कहा गया है-

अष्टमी कृष्णपक्षस्य रोहिणीऋक्षसंयुता । भवेत्प्रौष्ठपदे मासि जयन्ती नाम सा स्मृता ॥
अर्थात् भाद्रपदमास में कृष्णपक्ष की अष्टमी यदि रोहिणी नक्षत्र से संयुक्त होती है तो वह जयन्ती नाम से जानी जाती है।

इस व्रतमें सप्तमीसहित अष्टमीका ग्रहण निषिद्ध है- पूर्वविद्धाष्टमी या तु उदये नवमीदिने। मुहूर्तमपि संयुक्ता सम्पूर्णा साऽष्टमी भवेत् ॥ कलाकाष्ठामुहूर्ताऽपि यदा कृष्णाष्टमी तिथिः । नवम्यां सैव ग्राह्या स्यात् सप्तमीसंयुता नहि ।।

साधारणतया इस व्रत के विषय में दो मत हैं। स्मार्त लोग अर्धरात्रि का स्पर्श होने पर या रोहिणी नक्षत्र का योग होने पर सप्तमीसहित अष्टमी में भी उपवास करते हैं, किंतु वैष्णव लोग सप्तमी का किञ्चिन्मात्र स्पर्श होने पर द्वितीय दिवस ही उपवास करते हैं। निम्बार्क सम्प्रदायी वैष्णव तो पूर्व दिन अर्धरात्रि से यदि कुछ पल भी सप्तमी अधिक हो तो भी अष्टमी को न करके नवमी में ही उपवास करते हैं। शेष वैष्णवों में उदयव्यापिनी अष्टमी एवं रोहिणी नक्षत्र को ही मान्यता एवं प्रधानता दी जाती है।

इस दिन समस्त भारतवर्ष के मन्दिरों में विशिष्टरूप से भगवान्‌ का श्रृङ्गार किया जाता है। कृष्णावतारके उपलक्ष्य में गली-मुहल्लों एवं आस्तिक गृहस्थोंके घरोंमें भी भगवान् श्रीकृष्ण की लीला की झाँकियाँ सजायी जाती हैं एवं श्रीकृष्ण की मूर्ति का शृङ्गार करके झूला झुलाया जाता है। स्त्री-पुरुष रात्रिके बारह बजे तक उपवास रखते हैं एवं रात के बारह बजे शङ्ख तथा घण्टों के निनाद से श्रीकृष्णजन्मोत्सव मनाया जाता है। भक्तगण मन्दिरों में समवेत स्वर से आरती करते हैं एवं भगवान्‌ का गुणगान करते हैं।
जन्माष्टमी को पूरा दिन व्रत रखने का विधान है। इसके लिये प्रातःकाल उठकर स्नानादि नित्यकर्म से निवृत्त होकर व्रत का निम्न संकल्प करे-

ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः अद्य अमुकनामसंवत्सरे सूर्ये दक्षिणायने वर्षौँ भाद्रपदमासे कृष्णपक्षे श्रीकृष्णजन्माष्टम्यां तिथौ अमुकवासरे अमुकनामाहं मम चतुर्वर्गसिद्धिद्वारा श्रीकृष्णदेवप्रीतये जन्माष्टमीव्रताङ्गत्वेन श्रीकृष्णदेवस्य यथामिलितोपचारैः पूजनं करिष्ये ।

इस दिन केले के खम्भे, आम अथवा अशोक के पल्लव आदि से घर का द्वार सजाया जाता है। दरवाजे पर मङ्गल-कलश एवं मूसल स्थापित करे। रात्रि में भगवान् श्रीकृष्णकी मूर्ति अथवा शालग्रामजी को विधिपूर्वक पञ्चामृत से स्नान कराकर षोडशोपचार से विष्णुपूजन करना चाहिये। ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ – इस मन्त्र से पूजनकर तथा वस्त्रालङ्कार आदिसे सुसज्जित करके भगवान्‌ को सुन्दर सजे हुए हिंडोले में प्रतिष्ठित करे। धूप, दीप और अन्नरहित नैवेद्य तथा प्रसूति के समय सेवन होनेवाले सुस्वादु मिष्टान्न, जायकेदार नमकीन पदार्थों एवं उस समय उत्पन्न होनेवाले विभिन्न प्रकार के फल, पुष्पों और नारियल, छुहारे, अनार, बिजौरे, पंजीरी, नारियल के मिष्टान्न तथा नाना प्रकार के मेवे का प्रसाद सजाकर श्रीभगवान्‌को अर्पण करे।

दिन में भगवान्‌ की मूर्ति के सामने बैठकर कीर्तन करे तथा भगवान का गुणगान करे और रात्रिको बारह बजे गर्भ से जन्म लेने के प्रतीकस्वरूप खीरा फोड़कर भगवान्‌ का जन्म कराये एवं जन्मोत्सव मनाये। जन्मोत्सवके पश्चात् कर्पूरादि प्रज्वलित कर समवेत स्वर से भगवान की आरती-स्तुति करे, पश्चात् प्रसाद वितरण करे

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